नवम्बर 2019 सार संग्रह || Pratiyogita Darpan November 2019 Saar Sangrah

प्रतियोगिता दर्पण नवम्बर 2019 सार संग्रह || Pratiyogita Darpan November 2019 Saar Sangrah

नमस्कार दोस्तों
इस विडियो में आपके लिए प्रतियोगिता दर्पण नवम्बर 2019 का सार संग्रह लेकर आये है. जो आपके आने वाले कम्पटीशन में बहुत सहायक रहेगा

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धन्यवाद

जैसलमेर से तनोट 130 किमी भारत पाक सीमा पर अवस्तिथ है।  भाटी राव तनु उस आवड जी माता की आज्ञा ले यहाँ स्वांगिया जी का मंदिर निर्मित किया था. इस मंदिर की प्रतिष्ठा आवड जी माता द्वारा हिंगलाज धाम से लौटते समय की गयी थी।  इसलिए आवड जी माता तनोटराय के रूप में पूजी जाती है।  भारत की स्वतंत्रता से पूर्व इस मंदिर की पूजा शाकद्वीपीय ब्राह्मण करते थे।  भारत पाक युद्ध के समय भारतीय सैनिको को जी चमत्कार दिया उससे सैनिको के मन में उनके प्रति अगाध श्रद्धा एवं भक्ति भाव मुत्पन्न हुआ और वर्तमान में यह सैनिको की आराध्य देवी के रूप में पूजी जाती  है।  सीमा सुरक्षा बल के पुजारी द्वारा घ पूजा अर्चना का कार्य किया जाता है।  इस मंदिर को श्री तनोटराय ट्रस्ट एवं सीमा सुरक्षा बल द्वारा नवीनतम रूप प्रदान किया गया है।  चैत्र एवं भाद्रपद के नवरात्रो में यह यहाँ विशाल मेलो का आयोजन किया जाता है।  

देगराय जी का मंदिर 



जैसलमेर से पूर्व दिशा में 50 किमी दुरी पर देगराय जलाशय पर बना हुआ है।  ऐसे मान्यता है की आवड जी ने यहाँ दानवरूपी एक राक्षस का  सुर की देग बनाकर अपने कपडे रक्त से रेंज थे। इसलिए यह स्थान देगराय का मंदिर कहलाता है।  यह मंदिर देवीकोट गाओं के पास स्तिथ है। से मान्यता है की इस मंदिर में तात्री को रुकना  कठिन है क्यूंकि यहाँ पर तात्री को नगाड़ों और घुंगरू की आवाज सुनाई देती है। तथा कभी कभी दीपक स्वयं प्रज्जवलित हो उठते है।  

श्री स्वांगिया देवी का मंदिर (गजरूपसागर)

जैसलमेर से 4 किमी पूर्व की तरफ गजरूपसागर तालाब के समीप समतल पहाड़ी पर श्री स्वांगिया जी का मंदिर अवस्तिथ है।  इसका निर्माण 1895 में महारावल गज सिंह ने करवाया था।  गजरूप सागर जल संग्रहण की सुन्दर भूमिगत व्यवस्था का प्रतीक था।  जैसलमेर के महारावल प्रातः उठते समाया दुर्ग से इस मंदिर के दर्शन करर्ते है।  स्वांगिया माता भाटी वंश की कुल देवी के रूप में पूजी जाती है।  विजयराव भाटी स्वांगिया माता जी अनन्य भक्त था।  जो इतिहास में विजयराव चुडाला नाम से प्रसिद्ध हुआ। आधुनिक सुचना तकनिकी युग में शिक्षित लोगों का विश्वास देवी देवताओं पर से के होता जा रहा है।  फिर भी यह स्वीकार करना होगा की कुछ दिव्या शक्तिया हमारी आदतों आचार विचार तथा संकरो में गुप्त रूप से विध्यमान रहती है।  जो हमारी आंतरिक भवनों को आत्मबल और उत्साह संचार करने के लिए प्रेरित करती है। स्वांगिया माता जी के अलौकिक चमत्कारों के कारन लोगों में उनके प्रति अपर श्रद्धा एवं भक्ति भाव है।  जैसलमेर की मरुभूमि में तनोटमाता के अलौकिक प्रभाव एवं उनकी चमत्कारिक शक्क्तियो से सभी लोग परिचित है।  इसके आलावा इस धार्मिक मंदिर की यात्रा करने के लिए गुजरात, महाराष्ट्र , पाकिस्तान, मध्यप्रदेश एवं अन्य प्रदेशो के भी लोग आते है।  देवी माता जी के चमत्कारिक कार्यो से यहाँ दे जन्मनाल में उनके प्रति अटूट आस्था एवं धार्मिक भावना है।  ग्रामीण आंचलों में भी देवी  शक्ति से अपनी मनोकामना की पूर्ति एवं भौतिक सुख सम्पति को प्राप्त करते है।  ऐसे मान्यता प्रचलित है।  जैसलमेर के लोकजीवन में शक्ति स्वरूप ७ शक्तियों की उपासना करते है।  यहाँ के समाज में देवी देवताओं का पूजन कर मनौती मांगी जाती है।  मनौती जाल के वृक्ष की शका पर लाल धागा बांधकर मांगी जाती है।  देवी देवताओं की दया से जब पूर्ण जो जाती है तो श्रद्धा स्वरुप उन्हें छत्र  तोरण चढ़ाया जाता है।  इसी प्रकार जैसलमेर के तनोट मंदिर में देवी माता की उपासना के समय पूजा सामग्री धुप, अगरबत्ती नारियल ध्वजा दे अरिरिक्त मंदिर में आने वाला प्रत्येक श्रद्धालु एक रुमाल भी अपने साथ में लाते  है।  इस रुमाल को मनोकामना पूर्ण गॉन की कामना दे साथ स्थान पर बंधा जाता है।  जब मनोकामना पूरी हो जाती है।  तो उस स्थान पर बंधे रुमाल को खोलने के लिए श्रद्धालु अवश्य वापस जाता है।  ऐसे मान्यता है  की लोकजीवन में प्रचलित है की शक्ति की उपासना एवं आस्था के प्रतिन इस मंदिर के परिसर में रूमालों का एक संग्रह बन गया है।  इस कारन लोग तनोट माता को अब रुमाल वाली देवी भी कहते है।  
भारत पाक सीमा पर स्थित तनोट माता डीके मंदिर भारत पाक युद्ध का साक्षी रहा है।  हिन्दू धर्म मान्यता है की मंदिर में मस्जिद एवं दरगाह का निर्माण नहीं किया जाता है। संपूर्ण भारत में तनोट माता का मंदिर एकमात्र ऐसा मंदिर है जिसने मंदिर परिसर में फ़क़ीर बाबा की दरगाह बानी हुई है।  यह हिन्दू मुस्लिम साम्प्रदाइक सद्भावना एवं एकता का जिवंत उदाहरण है।  

सीमा सुरक्षा बल  का मंदिर प्रमुख है।  इसके पूर्व ें छोटा सा मंदिर था मंदिर के बहार एक पठारनुमा आकर में हरे कपडे में लिप्त स्थान था।  यहाँ कभी कोई जियारत काने नहीं आता था।  इस दरगाह के ऐतिहाइस्क महत्व होने के भी कोई प्रमाण नहीं मिलते है।  ऐसा कहा जाता है की शिकरवार के दिन समीप के गाओं से कभी कभी का आ जाते थे।  मुस्लिम परिवार के लोग माता के दर्शन करने आते थे।  लेकिन इस दरगाह के बारे में उन्हें कोई ज्ञान नहीं था।  तनोट माता के मंदिर का जीर्णोद्धार किया गया तो दरगाह को मंदिर मरिसार में लेकर इसे सूंदर रूप प्रदान किया गया।  देवी माता जी के दर्शन करने वाले मुस्लिम भक्त इस दरगाह में पूजा पथ करते है।  शिकरवार के दिन तनोट माता के दर्शन करके फिर इस दरगाह में नमाज अदा करते है।  वही तनोट माता के मंदिर में  हिन्दू श्रद्धालु भी इस दरगाह में प्रसाद चढ़ा कर अगरबत्ती करते है।  एक ही स्थल में मंदिर दरगाह होने से लोगो में सद्भावन की भावना जागृत होने का सूंदर उदाहरण है।  

मंदिर परिचय 

जैसलमेर से 5 किमी दूर तनोट मंदिर जाने वाले सड़क मार्ग पर बड़ा बाग़ स्थान आता है।  इसमें जैसलमेर के महारावलों के श्मशान पर बानी हुई कलात्मक छत्रियो एवं समरक विश्व विख्यात है।  महारावल जेतसिंग द्वारा निर्मित जैतसर सरोवर है।  बड़ा बाघ की तलहटी में सुन्दर उद्यान बना हुआ है।  जिसमे आम के सुन्दर विशाल पेड़ है।  रियासतकालीन जैसलमेर में इस बाग़ में विभिन्न प्रकार के फल फूल तथा सब्जियों का उत्पादन किया जाता था।  इस बाद का उल्लेख जैसलमेर की तवारीख में भी किया गया है।  इस स्थान पर क्षेत्रपाल जी का मंदिर स्थानीय लोगो के अटूट आस्था एवं धार्मिक भावना का  केंद्र है।  जैसलमेर में रहने वाली सभी जातियों द्वारा इस मंदिर की यात्रा की जाती है।  विशेषकर विवाह होने पर एवं पुत्र प्राप्ति के समय यहाँ की यात्रा शुभ मणि जाती है।  क्षेत्रपाल जी की मूर्ति बिना उत्कीर्ण प्रस्तान से निर्मित है।  उनकी पूजा तेल नारियल सिंदूर की पन्नियों  व् इत्र सामग्री द्वारा करके चंडी का थैला चढ़ाया जाता है। बड़ा बॉक्स में रहने वाले माली जाती के लोग इसके पुजारी  होते है। जैसलमेर के इसी ष्ट्र में पवन   गयी है।  जिससे ऊर्जा का भरपूर लाभ मरुप्रदेश को मिल रहा है।  बड़ा बाग़ में से 15 किमी दूर रामगढ सड़क मार्ग इज लानेना गाओं स्तिथ है।  इसी गाओं के पास में दिया बांध स्थित है।  एक छोटी सी ककनी नदी जब कोटड़ी गाओं से प्रवाहित होती थी। जो पहले उत्तर की तरफ तथा बाद में आगे चलकर बुझ नामक झील का निर्माण करती थी।  उसमे भरी वर्षा के कारण यह अपने सामान्य मांर्ग से भटक कर उतर की तरफ दिया बांध में लाणेला गाओं के पास समां जाती थी।  जिससे दलदली क्षेत्र बन जाता था।  जिसे स्थानीय नोली में जान कहा जाता था।  वर्तमान में भी लानेना गाओं के पास भरी वर्षा के समय रण क्षेत्र में जल कई महीनो तक इकठा रहता है।  रेट के समंदर में दूर दूर तक जल संचय का  यह दृश्य बड़ा ही मनमोहक होता है। लाणेला गाओं में दुघ दुरी पर जैसलमेर रामगढ रोड पर भादासर गाओं आता है।  इस गाओं में रक्तिम भूरे रंग के कठोर पत्थर पाए जाते है।  जिसका उपयोग आता पीसने की चक्कियों को बनाने में किया जाता है।  भादासर गाओं से आगे रामगढ रोड पर मोकला गाओं आता है. जहा पवन ऊर्जा उत्पादन हेतु चक्कियों की स्थापना की गयी है।  

सीमा सुरक्षा बल  का मंदिर प्रमुख है।  इसके पूर्व ें छोटा सा मंदिर था मंदिर के बहार एक पठारनुमा आकर में हरे कपडे में लिप्त स्थान था।  यहाँ कभी कोई जियारत काने नहीं आता था।  इस दरगाह के ऐतिहाइस्क महत्व होने के भी कोई प्रमाण नहीं मिलते है।  ऐसा कहा जाता है की शिकरवार के दिन समीप के गाओं से कभी कभी का आ जाते थे।  मुस्लिम परिवार के लोग माता के दर्शन करने आते थे।  लेकिन इस दरगाह के बारे में उन्हें कोई ज्ञान नहीं था।  तनोट माता के मंदिर का जीर्णोद्धार किया गया तो दरगाह को मंदिर मरिसार में लेकर इसे सूंदर रूप प्रदान किया गया।  देवी माता जी के दर्शन करने वाले मुस्लिम भक्त इस दरगाह में पूजा पथ करते है।  शिकरवार के दिन तनोट माता के दर्शन करके फिर इस दरगाह में नमाज अदा करते है।  वही तनोट माता के मंदिर में  हिन्दू श्रद्धालु भी इस दरगाह में प्रसाद चढ़ा कर अगरबत्ती करते है।  एक ही स्थल में मंदिर दरगाह होने से लोगो में सद्भावन की भावना जागृत होने का सूंदर उदाहरण है। 
एक दिन सभी बहने जकड़ा नदी के छिछले जल में बालसुलभ करियों द्वारा खेल रही थी।  उन्होंने नदी में नहाने का मानस बनाया सभी ने अपने वस्त्रों को झाड़ी के पीछे रख दिया तथा जल क्रीड़ाओं के साथ नहाने में व्यस्त हो गयी उसे समय संयोगवश नानन ग्रह के सुल्तान अदन सुमरा का सेवक लुचिया रास्ते में भटकता हुआ वह से निकल रहा था उसने जब सभी बहनो दे अध्भुत सौंदर्य एवं लावण्य रूप को देखा तो वह अस्श्चर्या चकित हुआ।  उसने चुपके से झाडी की ओट में रखे वस्त्रों को उठाया और अपने साथ ले गलाया तथा नुराण सुमरा को इस घटना को बढ़ा चढ़ा के बताया की अमुख निर्जन स्थान पर देखि सभी सुन्दरिया रूपवती है , आपको विश्वास न हो तो आप स्वयं मेरे साथ उस स्थान  की और चलें।  इधर जब सभी बहने जल क्रीड़ा एवं स्नान से निवृत होकर बहार निकली तो अपने वस्त्र झाडी में न पाकर उनको बड़ा आश्चर्य हुआ , उन्होंने अपनी दिव्या शक्ति से नागिन की देह धारण की और रेंगती हुई अपने वास स्थान में झोपड़ियों में पहुँच गयी।  
        कुछ समय बाद सेहजदा नुरान अपने सेवक लुचिये को लेकर जब नदी तट पर पहुंचा तो वह किसी को न पाकर उस स्थान के आसपास के खोज करने लगे।  उत्सुकता वश जब उन्होंने रेट इज बने सर्पो दे रेंगने के चिह्न देखे तो उन चिह्नों का पीछा करते करते हुए मामड़िया जी के परिवार के वास में बानी झोपड़ियों तक पहुँच गए।  सेहजदा नुरान एवं उनके सेवक लुचिये उस जब झोपड़ियों में देखा तो हतप्रभ रह गए क्योंकि सतहों बहने अपने आप को नागिन रूप से सिंहनियो में बदल लिया था।  इनके इसी स्वरुप को नागणेची, सिंहानिया जी तथा सहणो नाम से भी लोक जगत में सम्बोधित किया  जाता है।  सेहजदा नुराण का अभी भी उनके रूप को लेकर मोह भांग नहो हो पाया था।  उसके सेवक लुचिये द्वारा सात बहनो दे सौंदर्य वर्णन से वह उप पर मोहित हो गया था उसने अपने विवाह का प्रस्ताव मामड़िया  जी के पास भिजवाया था लेकिंग उन्होंने उस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया।  इसमें नुराण  का पिता अदन सुमरा अत्यधिक क्रोधित हुआ , क्योंकि उसके पुत्र को अभिलाषा पूर्ण नहीं हो प् रही थी।  अदन सुमरा ने मंडिया जी को सात दिन का समय और दिया ताहि प्रस्ताव् को स्वीकार कर सके और उसने हाकड़ा नदी पार करने वाली नदियों पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया था।  ताकि वह कही भाग के न जा सके।  

मामड़िया  जी कैसे निकले 

मामड़िया जी ने अपने विश्वस्त शेरव भाटी को सुल्तान अदन सुमरा केक पास विनयपूर्वक प्राथना करने तथा जिद को छोड़ने के लिए प्रताव भेजा , लेकिन अदन सुमरा नहीं माना। तब मामड़िया जी ने अपने परिवार सहित वास स्थान को छोड़ने के लिए नदी प्रकार जाने का निश्चय किया  . जब इनका कारवां हाकड़ा नदी दे तट पर पहुंचा तो उसमे अथाह जल हिलोरे ले रहा था।  उनको बिना नवो के पार करना मुस्किल था आवड़ जी ने जब अपने पिताश्री एवं कारवां के अन्य लोगो को संकट में देखा तो नदी को मार्ग देने के लिए प्रार्थना की लेकिन नदी मार्ग देने के बजाय पहले से भी तेज उफान पर हिलोरे मरने लगी तभी आवड जी ने उत्तेजित होकर शेरव भाटी को आदेश दिया की वह अपने झुण्ड के सबसे मांसल भेषे महिष की तलवार से बलि चढ़ाये, शेरव भाटी ने जैसे ही बलि चढाई आवड जी ने उसका रक्तपान करके जोर से आव्हान किया और सात चुल्लुओं में नदी के पानी को पीकर रेगिस्तान में बदल दिया।  आवड जी द्वारा हाकड़ा नदी को सात चुल्लुओं में पानी पीने से विशाल रहिस्तान में बदल  जाने का उल्लेख तवारीख जैसलमेर में भी है।   इस प्रकार आवड़ जी द्वारा हाकड़ा नदी सोखने के पश्चात् मामड़िया जी का परिवार एवं उनका करवा नदी पार करके सकुशल दूसरे स्थान पर पहुँच तो अदन सुमरा के सैनिक तट पर पहुंचे तो लेकिंग इस बार नदी ने पुनः अपने जलस्तर को बढाकर उनका मार्ग रोक दिया था।  नूरन सुमरा ब्रह्मवश सोचने लगा की अगर आवड जी माता वास्तविक रूप से देवी का रूप होते तो रात्रि में सिंध छोड़कर नहीं जाते।  उनसे और उनके सेनिको ने आवड जी का पीछा करना शुरू कर दिया तब आवड जी व् उनकी बहनो ने मिलकर सिंहनियों का रूप धारण कर लिया जिससे वे सिंहनिओ देवी देवी के रूप में पूजी जाती है।  नूरन की सेना ने आवड जी का पीछा करना जारी रखा तब आवड जी ने उनको भस्म होने का शाप दे दिया जिसमे नूरन सुमरा व् उसके सैनिक भस्म हो गए।  उस स्थान का नाम वतर्मान में बलाना नाम से जाना जाता है।  

नूरन सुमरा व् उसकी सेना का अंत

सिद्ध प्रदेश में हकरा नदी पार करने के पश्चात जिस गाओं के लोगो ने पहली बार इन देवियो का दर्शन किया।  उस गाओं का नाम "आइता" रखा गया।  इसके उपरांत "आइता" गाओं से सात  किलोमीटर दूर "कालेडूंगर " को अपना निवास स्थान बनाया यहाँ पर आवड़ जी काळा डूंगर रॉय नाम से प्रसिद्ध हुई।  आवड़ जी के चमत्कारों की कीर्ति संपूर्ण मांड प्रदेश में फ़ैल चुकी थी।  सभी लोग इनके  दर्शन करने के लिए दूर दूर से आने लगे थे।  लोद्रवा दस परमार शाशक जसभाँ काला डूंगर आये उन्होंने बिना भक्तिभाव आष्टा के आवड़ जी दे दर्शन करने की सोची लेकिन आवड़ जी उन्हें बिना दरशर दिए भोजासर तालाब प्रस्थान कर गए थे  . राजा जसभांन ने अपनी भूल के साथ क्षमा याचना की तथा भोजासर में आवड जी का राजसिक पूजा पाठ किया।  इस भोजासर प्रवास ढ स्मृति में उन्हें भोजसरी नाम से भी पूजा जाने लगा

भोजसरी नाम से नहीं पूजा जाने लगा 

आवड जी के दिव्या चमत्कारों की प्रशिधि लोद्रवा से होती हुई, जब राव तनु के पास पहुंची तो उन्होंने अपनी रानी सरंगदे सोलंकिनी, जो आवड़ जी माता की अनन्य भक्त थी के साथ रथ में बैठकर दर्शन के लिए तनोट से चल पड़े।  राव तनु ने अपने भ्राता बहादुरिया  जी की सेवा में  हेतु पहले घ भेज दिया था।  आवड जी माता के मांड प्रदेश में विचरण करते समय उनके भाई महरखे जी को पीवणा सांप ने दस लिया था सूर्योदय से पूर्व उपचार नहीं होने से उसकी मृत्यु हो सकती थी।  आवड जी ने अपनी शक्ति से सूर्यदेव को प्रार्थना कर बहन लंगड़े द्वारा पाताल लोक से अमृत लाने तक रोके रखा तथा अपने भाई को अमृत पिलाकर जीवनदान दिया. 

श्री देगराय नाम से पूजा जाने लगा 

भाई मेहरखे जी को पुनर्जीवित करने दे बाद आवड़ जी अपनी बहनो सहित जैसलमेर में देवीकोट गाओं के पास पहुंची यहाँ पर इन्होने राव तनु जी के भाई बहादुरिया जो को दर्शन दिए।  उसी सामान दानवरूपी एक देगडिया नामक राक्षस ने उत्पात मचा रखा था।  आवड जी माता ने बहादुरिया जी को उस राक्षस का वध करने के लिए आदेश दिया तब उन्होंने अपनी चक्रली नाम की तलवार से उस राक्षस का वध किया।  ऐसे मान्यता है की दैत्य के सिर को देग को बनाकर उसमे रक्त उबाल कर सतो देवियो ने अपनी ओढ़निया रंगी थी।  उसी स्थान का नाम देग  पड़ा तथा देवी जी श्रीदेगराय नाम से पूजी जाने लगी।  उधर तनोट से आवड जी के दर्शन हेतु रथ से रवाना  हुए राव तनु जी एवं उनकी महारानी सोलंकिनी लम्बी कष्टमय यात्रा एवं थकन से चूर हो।   उन्होंने अपना रथ देवी माता जी के प्रवास स्थल से कुछ दूर पहले ही बोर नमक टीले पर विश्राम करने के लिए रोक दिया था।  कई दिनों की यात्रा से व्यथित महारानी सोलंकिनी ने आगे के शेष यात्रा पूरी करने में असमर्थता व्यक्त की।  उन्होंने ागगढ श्रद्धा के साथ बोर दस टेले पर जाल के वृक्ष के एक सुखी शाखा रोपित कर सच्चे मन से प्रार्थना की तथा उनसे मनौती मांगी की देवी जी स्वयं बोर के टीले पर प्रकट होकर उन्हें करपारथ करें।  

       






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